
- खरी बात/ रवि कुमार
नीतीश सरकार का पत्रकार पेंशन वादा – वोट की चाल या हकीकत में खोखला?
—————————–
बिहार में चुनावी बुखार चढ़ चुका है, और नीतीश सरकार ने ठीक समय पर पत्रकारों के लिए पेंशन की राशि बढ़ाने का ढोल पीटना शुरू कर दिया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह वाकई में पत्रकारों के हित में है, या सिर्फ वोट बैंक की सियासत? सरकार का यह कदम सुनने में जितना चमकदार लगता है, उतना ही खोखला भी नजर आता है। आखिर क्यों? क्योंकि पेंशन की नई शर्तें ऐसी हैं कि बिहार के ज्यादातर मेहनतकश पत्रकार इसके दायरे में आएंगे ही नहीं। तो क्या यह सिर्फ दिखावे की घोषणा है, जिसका फायदा चंद लोग ही उठा पाएंगे?
पत्रकार, जो समाज का चौथा स्तंभ कहलाते हैं, बिहार में अक्सर आर्थिक तंगी और असुरक्षा के साये में काम करते हैं। छोटे-मझोले अखबारों और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर काम करने वाले पत्रकारों की स्थिति तो और भी दयनीय है। कम वेतन, अनिश्चित नौकरी, और बुनियादी सुविधाओं का अभाव – यह उनकी जिंदगी का सच है। ऐसे में नीतीश सरकार से उम्मीद थी कि वह पत्रकारों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए ठोस कदम उठाएगी। लेकिन पेंशन की राशि बढ़ाने का यह फैसला कितना कारगर होगा, जब इसकी शर्तें ही इतनी सख्त हैं कि ज्यादातर पत्रकार इसके लाभ से वंचित रह जाएंगे? क्या सरकार ने यह जानबूझकर किया, ताकि वादे का शोर तो हो, लेकिन जिम्मेदारी कम उठानी पड़े?
सवाल यह भी उठता है कि आखिर सरकार पत्रकारों की बुनियादी समस्याओं पर चुप्पी क्यों साधे हुए है? बिहार के विभिन्न अखबारों और मीडिया संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों को न तो समय पर वेतन मिलता है, न ही सामाजिक सुरक्षा। कई पत्रकारों को बिना किसी कॉन्ट्रैक्ट के काम करना पड़ता है, और नौकरी छूटने का डर हमेशा सताता रहता है। अगर सरकार वाकई पत्रकारों के हितैषी है, तो उसे पेंशन की राशि बढ़ाने के साथ-साथ उनकी नौकरी की सुरक्षा, बेहतर वेतन, और कार्यस्थल की स्थिति सुधारने पर भी ध्यान देना चाहिए था। लेकिन ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा।
चुनावी मौसम में इस तरह की घोषणाएं कोई नई बात नहीं। हर बार वोटों की खातिर बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं, लेकिन हकीकत में कितने पूरे होते हैं? क्या नीतीश सरकार का यह कदम भी उसी पुरानी स्क्रिप्ट का हिस्सा है? पत्रकारों का हक मारकर, उन्हें सिर्फ कागजी लाभ दिखाकर क्या सरकार अपनी पीठ थपथपाना चाहती है? और सबसे बड़ा सवाल – क्या बिहार के पत्रकार, जो दिन-रात सच को उजागर करने के लिए जूझते हैं, इस खोखले वादे के भरोसे रह सकते हैं? अगर सरकार को पत्रकारों की चिंता है, तो उसे दिखावे से हटकर उनकी जिंदगी में वास्तविक बदलाव लाने होंगे। आप क्या सोचते हैं?